Skip to product information
1 of 1

Lexicon

[Hindi] Titli (तितली) By Jai Shankar Prasad (Paperback)

[Hindi] Titli (तितली) By Jai Shankar Prasad (Paperback)

Regular price Rs. 199.00
Regular price Rs. 199.00 Sale price Rs. 199.00
0% OFF Sold out
Taxes included.
Free Shipping Over Rs 599

Get it between -
Note:- Delivery time may vary

Offers Available (Tap to Open)
GET Extra Rs 25 OFF Order over Rs 599
GET Extra Rs 50 OFF Order over Rs 999
GET Extra Rs 150 OFF Orders over Rs 1999
GET Extra Rs 300 OFF Orders over Rs 2999
GET Extra 10% OFF Order above 10 Qty
GET Extra 15% OFF Order above 20 Qty

Delivery

It takes 3 to 7 Days for Delivery & usually Dispatch in 2 Days

Easy Replacements

We have 3 Days Replacements Policy...

100% Secure Payments

Your payments will be secure as we are using India's biggest payment gateway CC Avenue

View full details
कवि, नाटककार के रूप में हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रमुख स्तंभ जयशंकर प्रसाद का कथा साहित्य भी विशेष महत्त्व रखता है। इसमें भी उनके दो सम्पूर्ण उपन्यास- कंकाल और तितली तथा एक अधूरा उपन्यास इरावती उनका औपन्यासिक रचना धर्मिता की प्रतिष्ठा के लिए पर्याप्त है। ये तीनों उपन्यास हिन्दी उपन्यास की तीन विशिष्ट प्रकृति और धाराओं का संकेत करते हैं। यथार्थवादी उपन्यास की धारा और आदर्शवादी तथा ऐतिहासिक उपन्यासों की परम्परा से प्रसाद जी ने यथार्थवाद, आदर्शवाद और इतिहास के प्रति अनुसंधानात्मक दृष्टि को अपने ढंग से प्रतिपादित किया है। प्रसाद जी उपन्यास साहित्य यथार्थ की क्रूताओं का विवेचन करते हुए आदर्श भाव का स्पर्श करते हुए पाठक को एक ऐसी मानसिकता के धरातल पर उतार देता है जहां उसने समाज की वास्तविकता को देखने की अपनी दृष्टि का विकास हो जाता है। प्रसाद के उपन्यास, भाव और विचार, संगति और संस्कार के अद्भुत उदाहरण हैं। उनका दार्शनिक चिन्तन नैतिक और व्यावहारिक स्तर पर वस्तु के अन्तर और बाह्य को दर्पण की भांति पारदर्शी रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। उनके उपन्यासों में हम अपने काल की सामाजिक सच्चाइयों से साक्षात्कार करते हैं और साथ ही मानव जगत् में उनसे संघर्ष करने की क्षमता भी अर्जित करते हैं।
Publisher ‏ :- ‎ Lexicon Publication
Language ‏ :- ‎ English
Format : Paperback
ISBN-13 : 9789393050649
जयशंकर प्रसाद (जन्म 30 जनवरी 1889- मृत्यु 15 जनवरी 1937), हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कामनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के, प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के, प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌ 1946 वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार) को काशी में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी।

प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। छठे दर्जे में वहाँ शिक्षा आरंभ हुई थी और सातवें दर्जे तक ही वे वहाँ पढ़ पाये। उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया। प्रसाद जी के प्रारंभिक शिक्षक श्री मोहिनीलाल गुप्त थे। वे कवि थे और उनका उपनाम 'रसमय सिद्ध' था। शिक्षक के रूप में वे बहुत प्रसिद्ध थे। चेतगंज के प्राचीन दलहट्टा मोहल्ले में उनकी अपनी छोटी सी बाल पाठशाला थी।[5] 'रसमय सिद्ध' जी ने प्रसाद जी को प्रारंभिक शिक्षा दी तथा हिंदी और संस्कृत में अच्छी प्रगति करा दी।[7] प्रसाद जी ने संस्कृत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। उनके निकट संपर्क में रहने वाले तीन सुधी व्यक्तियों के द्वारा तीन संस्कृत अध्यापकों के नाम मिलते हैं। डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा के अनुसार "चेतगंज के तेलियाने की पतली गली में इटावा के एक उद्भट विद्वान रहते थे। संस्कृत-साहित्य के उस दुर्धर्ष मनीषी का नाम था - गोपाल बाबा। प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए उन्हें ही चुना गया।" विनोदशंकर व्यास के अनुसार "श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी उन्हें संस्कृत और उपनिषद् पढ़ाते थे।"[6] राय कृष्णदास के अनुसार रसमय सिद्ध से शिक्षा पाने के बाद प्रसाद जी ने एक विद्वान् हरिहर महाराज से और संस्कृत पढ़ी। वे लहुराबीर मुहल्ले के आस-पास रहते थे। प्रसाद जी का संस्कृत प्रेम बढ़ता गया। उन्होंने स्वयमेव उसका बहुत अच्छा अभ्यास कर लिया था। बाद में वे स्वाध्याय से ही वैदिक संस्कृत में भी निष्णात हो गये थे।"[7] बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत-अध्यापक महामहोपाध्याय पं॰ देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती को प्रसाद जी का काव्यगुरु माना जाता है।